अब समलैंगिकता अपराध नहीं

 06 Sep 2018  1218
संवाददाता/in24 न्यूज़। समलैंगिकता को अपराध मानने वाली आईपीसी की धारा 377 की वैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है। कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में गुरुवार को कहा कि देश में सबको समानता का अधिकार है। समाज की सोच बदलने की जरूरत है। अपना फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा, कोई भी अपने व्यक्तित्व से बच नहीं सकता है। समाज में हर किसी को जीने का अधिकार है। कोर्ट ने कहा कि हमें पुरानी धारणाओं को बदलना होगा। एलजीबीटी समुदाय को हर वो अधिकार प्राप्त है जो देश के किसी आम नागरिक को मिले हैं। हमें एक दूसरे के अधिकारों का आदर करना चाहिए। इस फैसले के साथ ही उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने सहमति से दो वयस्कों के बीच बने समलैंगिक यौन संबंध को एक मत से अपराध के दायरे से बाहर कर दिया। साथ ही भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के एक हिस्से को, जो सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध को अपराध बताता है, तर्कहीन, बचाव नहीं करने वाला और मनमाना भी करार दिया। उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने गुरूवार को एकमत से 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसके तहत परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध अपराध था। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा शामिल हैं। उच्चतम न्यायालय धारा 377 को आंशिक रूप से निरस्त किया है, क्योंकि इससे समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पशुओं और बच्चों के साथ अप्राकृतिक यौन क्रिया से संबंधित धारा 377 का हिस्सा पहले की तरह अपराध की श्रेणी में ही रखा गया है। यही नहीं पशुओं के साथ किसी तरह की यौन क्रिया भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत दंडनीय अपराध बनी रहेगी। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 एलजीबीटी के सदस्यों को परेशान करने का हथियार था, जिसके कारण इससे भेदभाव होता है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय को अन्य नागरिकों की तरह समान मानवीय और मौलिक अधिकार हैं। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपनी और न्यायाधीश ए एम खानविलकर ओर से कहा कि खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पाना मरने के समान है। उच्चतम न्यायालय ने यौन रुझान को जैविक स्थिति बताते हुए कहा कि इस आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और जहां तक किसी निजी स्थान पर आपसी सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने का सवाल है तो ना यह हानिकारक है और ना ही समाज के लिए संक्रामक है। यही नहीं फैसला पढ़ते हुए न्यायाधीश नरीमन ने कहा सरकार, मीडिया को उच्चतम न्यायलय के फैसले का व्यापक प्रचार करना चाहिए ताकि एलजीबीटीक्यू समुदाय को भेदभाव का सामना न करना पड़े। कोर्ट का फैसला आते ही एलजीबीटी समुदाय में खुशी की लहर दौड़ गई है। चेन्नई, मुंबई और देश के कोने- कोने से एलजीबीटी समुदाय के लोगों में खुशी के मारे रोने लगे वहीं कुछ जगह पर लोग अपनी भावनाओं को काबू में नहीं रख पाए है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए होमोसेक्सुएलिटी यानि समलैंगिकता को क्रिमिनल एक्ट बता चुका था जिसको दोबारा चुनौती देते हुए क्युरिटिव पिटिशन दाखिल की गई थी। बता दें कि कई वर्षों से समुदाय इसे अपराध की श्रेणी में रखे जाने का विरोध करता आ रहा था। जिसपर आज सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए मुहर लगा दी है कि समलैंगिकता अपराध नहीं है। संविधान पीठ ने नृत्यांगना नवतेज जौहर, पत्रकार सुनील मेहरा, शेफ ऋतु डालमिया, होटल कारोबारी अमन नाथ और केशव सूरी, व्यावसायी आयशा कपूर और आईआईटी के 20 पूर्व तथा मौजूदा छात्रों की याचिकाओं पर यह फैसला सुनाया। इन सभी ने दो वयस्कों द्वारा परस्पर सहमति से समलैंगिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध के दायरे से बाहर रखने का अनुरोध करते हुये धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। समलैंगिक यौन संबंधों का मुद्दा पहली बार गैर सरकारी संगठन नाज फाउण्डेशन ने 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में उठाया था। उच्च न्यायालय ने 2009 में अपने फैसले में धारा 377 के प्रावधान को गैरकानूनी करार देते हुये ऐसे रिश्तों को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था। उच्च न्यायालय के इस फैसले को 2013 में उच्चतम न्यायालय ने पलट दिया था। इसके बाद शीर्ष अदालत ने अपने फैसले पर पुनर्विचार के लिये दायर याचिका भी खारिज कर दी थी। हालांकि, शीर्ष अदालत में इस फैसले को लेकर दायर सुधारात्मक याचिकायें अभी भी लंबित हैं।