लौकडाउन में देशी ग़रीब गिरमिटिया मज़दूर

 07 May 2020  1063


अजय भट्टाचार्य/ मुंबई
यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं यह कर्नाटक में एक प्रवासी मजदूर के अस्थाई निवास की है। वह मजदूर जो तालाबंदी के चलते अचानक बेघर हो गया। वैसे भी उनका कोई देश नहीं है? वे मजदूर हैं। वे दिहाड़ी मजदूर हो सकते हैं और वे वेतनभोगी भी हो सकते हैं। सिक्यूरिटी में डंडा फटकारते और साहब लोगों के आने पर सोसाइटी का दरवाजा खोलते मजदूर! वे उत्तर प्रदेश , बिहार, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, गुजरात, उड़ीसा और देश के किसी भी हिस्से से किसी भी हिस्से में जाकर मजदूरी करने वाले मेहनतकश बिरादरी के लोग हैं। लेकिन बिडंबना देखिये आज वही मजदूरआंखों की किरकिरी बने हुए हैं। वे सूरत, बांद्रा, दिल्ली और देश के किसी भी हिस्से से निकलकर जब पैदल ही अपने गांव की ओर चल पड़े तो वे अवांछित हो गये। सत्ता के साथ कदमताल करते देशभक्त उन्हें देशद्रोही बताने लगे। घर पर नहीं बैठ सकते क्या? इतनी क्या इमरजेंसी है? ये भी तबलीगी से कम नहीं! वगैरह-वगैरह। यह फब्तियां कौन लोग दे रहे हैं या थे? वे जो खूब खाये-पिए अघाए लोग हैं! जिनके घर पर महीनों नहीं सालों तक खाने-पीने की व्यवस्था योग्य धन-संसाधन हैं।  इनको 90 वर्ष की वह बूढ़ी महिला और लंगड़ाकर चलती पांच साल की वह बच्ची भी देशद्रोही नजर आती है जो पैदल ही अपने गांव जाने के लिए सड़क पर है। कुछ और ज्यादा होशियार और अतिरिक्त बुद्धिमान लोग कर्मभूमि की दुहाई देकर उनके गांव वापस जाने को देशद्रोह मानते हैं। कौन हैं ये भद्रलोक के लोग? ये वे लोग हैं जो अपने परिवार के साथ अपने घरों में चाय की चुस्कियों के साथ नमकीन और पकौड़े भकोसते हुए तालाबंदी का जश्न मना रहे हैं। गांव जिनके लिए एक रस्म भर रह गया है। इसलिए उन्हें मजदूरों की पीड़ा समझ में नहीं आती।  सत्ता का छल देखिये कि जहां के लिए वे प्रवासी हैं वह राज्य और जहां के वे मूल निवासी हैं, वह राज्य भी उनको स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है।  सरकारी मदद भाषणों में ही स्थिर होकर रह गई है। घर जाने के लिए मिलजुल कर बस तो कर ली मगर जहां पहुंचना था वहां न पहुंचकर वापस वहीं पहुंच गये जहां से चले थे। उनका रोना-बिलखना देखिये और सोचिये कि अपनी जमा-पूंजी को चंदे में देकर डेढ़ लाख रुपये में बस से सूरत से उत्तर प्रदेश जा रहे मजदूर मध्य प्रदेश-उत्तर प्रदेश सीमा पर रोक दिए गये। बस वाला वहां से भाग गया और मजदूर वापस सूरत पार्सल कर दिए गये। प्रदेश की सीमा पर बसें मौजूद थीं लेकिन मजदूरों को उत्तर प्रदेश लाने के लिए नहीं बल्कि मजदूरों को पकड़कर वापस गुजरात भेज देने के लिए।  
बांदा की महिला का पति मर गया, वो सुदूर किसी शहर में सड़क पर भटक रही है। कैसे भी हो मुझे बांदा पंहुचा दो जी। पति का मुंह देख लूंगी,  कहकर वो फफक कर रो देती है। 
एक साठ साल की महिला अपनी बात कहते-कहते रो देती है,  सिसक कर पूछती है कैसे मांगकर खाएं, किससे मांग कर खाएं? काम दे दो  साहब। कुछ भी कर लेंगे। क्या ये हाल एक शानदार देश में उसकी जनता के हो सकते थे? 
अगर हुए तो  शासन-प्रशासन,  नेता और धार्मिक ठेकेदार सब कहां मर गए? झूठ देखिये कि रेलवे कहती है कि कोई टिकट नहीं बेचा गया फिर लोगों के पास टिकट मिलता है?  कानपुर पहुंची एक श्रमिक विशेष ट्रेन में लोगों ने टिकट दिखाया। स्लीपर से भी महंगा टिकट, 3 साल के बच्चे का भी पूरा टिकट। मीडिया के धुरंदर तबाह होते पाकिस्तान से लेकर पड़ोस के गरीब देशों की गरीबी से महान भारत की तुलना में व्यस्त हैं।  उन्हें यह मजदूर नहीं दीखता।  और अगर दीखता भी है तो केवल कोसने के लिए।  ये देक्खो ऽऽऽ.... शराब की लाइन में खड़ा गरीब मजदूर! बिना यह जाने कि उसके मालिक ने उसे लाइन में खड़ा कर अपने मालिक होने का फायदा लिया है। और जब कुछ नहीं मिला तो बतकुच्चन के लिए हिन्दू मुस्लिम है ही!  कहीं से यह आवाज नहीं उठी कि कर्नाटक से जिन मजदूरों को वापस जाने की अनुमति दे दी गई थी फिर सरकार ने उनकी ट्रेनें ही रद्द करवा दीं।  अपने ही देश में गिरमिटिया मजदूर बना दिया।  क्यों? क्या बंधुआ मजदूरी को शासकीय संरक्षण मिल गया क्या? वे भद्रजन जो अपनी मर्जी से जाति पूछकर सामान खरीदने के पक्ष में क्रेता के अधिकार गिना रहे थे उनकी जीभ को मजदूरों के मुद्दे पर लकवा मार गया। क्या मजदूर से उसकी इच्छा के विरुद्ध काम कराया जा सकता है? अगर हां तो क्या हम दासता के युग की तरफ बढ़ रहे हैं? अफ़सोस तो यह है जो व्यक्ति देश भर में गरीबों, मजदूरों, शोषितों, वंचितों, दलित-दमित लोगों के उन्नयन की बात करता था, इस मुद्दे पर वह भी मौन है।  
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)