फिल्मकार बिमल रॉय की आज 113वीं जयंती

 12 Jul 2022  596

धर्मेंद्र नाथ ओझा/मुंबई

आज फिल्मकार बिमल रॉय (Bimal Roy) की 113वीं जयंती है। बिमल रॉय का जन्म 12 जुलाई 1909 को हुआ था. आज उनकी जयंती पर अवसर उन्हें याद करने का। छह फरवरी 1950 की सुबह बॉम्बे हावड़ा मेल मुम्बई के विक्टोरिया टर्मिनल (अब सीएसएमटी) पहुंचती है। ट्रेन के एक कोच से बंगाल के एक प्रसिद्ध कैमरामैन और निर्देशक अपने परिवार और अपनी क्रिएटिव टीम के साथ उतरते हैं। उनको बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो में फ़िल्म निर्देशन करने के लिए आमंत्रित किया गया है। उस फिल्मकार की पत्नी और दो बेटियां साथ में हैं। बिमल रॉय कलकत्ता में छह फिल्में निर्देशित कर चुके हैं। उनकी फिल्में उदयेर पाथे (हिन्दी वर्जन हमराही), अजानगढ़ और पहला आदमी के बाद उनकी प्रतिभा का डंका फ़िल्मी दुनिया में बजने लगा था। बॉम्बे टॉकीज के मालिक अशोक कुमार को अपने स्टूडियो के लिए ऐसे प्रतिभाशाली निर्देशक की ज़रूरत थी। उन्होंने बिमल दा को कलकत्ता के न्यू थिएटर स्टूडियो से तीन गुना वेतन पर मुम्बई के बॉम्बे टॉकीज ज्वाईन करने का निमंत्रण दिया। बिमल दा ने शर्त रखी कि आपके बॉम्बे टॉकीज में मैं अकेले शामिल नहीं होऊँगा बल्कि अपनी कोर टीम के साथ बॉम्बे टॉकीज ज्वाईन करूँगा। अशोक कुमार ने तुरंत उनकी बात मान ली। उसदिन विक्टोरिया टर्मिनल स्टेशन पर उनकी कोर टीम के सदस्य थे फ़िल्म एडीटर हृषिकेश मुखर्जी, स्क्रीनप्ले राइटर नबेन्दु घोष, कैमरामैन कमल बोस, चीफ असिस्टेंट असित सेन (जो बाद में कॉमेडी कैरेक्टर एक्टर बने), नाज़िर हुसैन (फ़िल्म अभिनेता) और पॉल महेंद्र ( संवाद लेखक और अभिनेता)। मालाड के बॉम्बे टॉकीज कैम्पस के पास ही बिमल दा परिवार को रहने के लिए एक खूबसूरत बंगला दिया जाता है । उस बंगले में बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी रहती थी। जो कुछ साल पहले बॉम्बे टॉकीज के सारे शेयर बेचकर अपने रूसी पति चित्रकार एस रोरिख के साथ हिमाचल में शिफ्ट हो गई थी।  बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो  उनकी कोर टीम के सदस्यों को भी रहने की व्यवस्था करती है। बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म माँ की स्क्रिप्ट पर पर काम शुरू होता है । नबेन्दु घोष को स्क्रीनप्ले लिखने और पॉल महेन्द्र को संवाद लिखने की जिम्मेवारी दी जाती है। लीला चिटनीस, नाज़िर हुसैन, भारत भूषण, श्यामा और पॉल महेन्द्र मुख्य भूमिका निभाते हैं। जर्मन कैमरामैन जोसेफ वारशिंग सिनेमेटोग्राफी करते हैं और हृषिकेश मुखर्जी  फ़िल्म का सम्पादन । लेकिन बिमल दा द्वारा मुम्बई में निर्देशित पहली फ़िल्म फ्लॉप हो जाती है।  बिमल दा निराश होकर अपनी टीम के साथ कलकत्ता लौटने का फ़ैसला करते हैं।  लेकिन अशोक कुमार  किसी कीमत पर बिमल दा को खोना नहीं चाहते । वे अपने प्रोडक्शन हाऊस अशोक कुमार प्रोडक्शन लिमिटेड के बैनर से शरतचन्द्र के उपन्यास परिणीता पर फ़िल्म बनाने की घोषणा कर देते हैं। बिमल दा और उनकी टीम को परिणीता बनाने की जिम्मेवारी दे दी जाती है।  परिणीता की स्क्रिप्ट पर बिमल रॉय के साथ नबेन्दु घोष काम शुरू कर देते हैं। परिणीता के लेखन के दौरान जापान के अकीरा कुरोसावा की फ़िल्म "राशोमोन" मुम्बई के इरोज़ सिनेमा में प्रदर्शित होती है ।  बिमल रॉय पूरी टीम के साथ "राशोमोन" देखने के लिए मालाड से चर्चगेट पहुँचते हैं । राशोमोन इन्हें इतना प्रभावित करती है कि फ़िल्म देखने के बाद जब लोग हॉल से बाहर आते हैं तो कोई कुछ नहीं बोलता। बेस्ट के डबल डेकर बस के ऊपरी मंजिल पे सभी लोग सवार होते हैं । बस अपनी रफ़्तार से मालाड की तरफ बढ़ रही है। बिमल दा सिगरेट पे सिगरेट फूंके जा रहे हैं। लेकिन खामोशी अभी भी कायम है। अचानक बिमल रॉय  मौन तोड़ते हुए पूछते हैं  क्या लगता है तुमलोगों को...क्या हमें भी ऐसी फिल्म बनानी चाहिए। सभी एक स्वर में कहते हैं हाँ दादा । बिमल दा कहते हैं नबेन्दु परिणीता लिखने में व्यस्त है । तुममें से इस तरह की फ़िल्म कौन लिख सकता है...बताओ ? टीम के जो सदस्य इस चुनौती को स्वीकारता है उसका नाम है हृषिकेश मुखर्जी। असित सेन पूछते हैं लेकिन दादा...ऐसी फिल्म प्रोड्यूस करेगा कौन ? बिमल रॉय सिगरेट का कश लेते हुए कहते हैं ऐसी फिल्में हम प्रोड्यूस करेंगे ।  हम अपनी कम्पनी बनाएँगे और तुमसब उसमें पार्टनर रहोगे।  उस रात बेस्ट के डबलडेकर बस में बिमल रॉय प्रोडक्शन का जन्म होता है। बिमल रॉय प्रोडक्शन का रजिस्ट्रेशन कराया जाता है। लेकिन उनके पास ऑफिस के लिए कोई जगह नहीं होती और न इतने पैसे होते कि किराए पर ऑफिस लिया जा सके। उनके इस संकट से उबारने के लिए मोहन स्टूडियो के मालिक रमनिकलाल मेहता प्रकट होते हैं। वे बिमल रॉय को अपनी स्टूडियो में दफ़्तर खोलने की इजाज़त देते हैं। मोहन स्टूडियो में एक ही फ़िल्म कम्पनी का दफ़्तर होता है जिसका नाम होता है बिमल रॉय प्रोडक्शन। कम्पनी के बैनर तले पहली फ़िल्म बनाने के लिए कहानी की तलाश शुरू होती है। हृषिकेश मुखर्जी को अपने दोस्त की लिखी कहानी 'रिक्शावाला' याद आती है वे बिमल दा को सुनाते हैं। बिमल दा तुरंत उस कहानीकार को मुम्बई बुलाते हैं। उस कहानीकार का नाम है सलिल चौधरी जो इस फ़िल्म में संगीत भी देते हैं। बिमल रॉय के साथ बैठकर हृषिकेश मुखर्जी जब स्क्रिप्ट पे काम करना शुरू करते हैं तो उनकी ज़ेहन में जनवरी 1952 में मुम्बई में आयोजित पहला भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव में दिखाई गई इटली के फिल्मकार वी डी सीका की चर्चित फिल्म 'बाईसिकिल थीव्स' याद आती है। बाईसिकिल थीव्स से प्रेरित होकर बिमल दा  कलकत्ता शहर की निर्दयता और सड़कों पर हाथरिक्शा खींचते और जूता पॉलिश करते बाप बेटे के संघर्ष और उनके रिश्ते की कोमलता को रिक्शेवाले कहानी में जगह देते हैं।। उस फिल्म का नाम रखा जाता है "दो बीघा ज़मीन"। दरअसल स्क्रिप्ट पूरी हो जाने के बाद फ़िल्म का नया नाम सोचा जाने लगा। तभी किसी ने गुरुदेव टैगोर की एक कविता की याद दिलाई। वो कविता थी - दुई बीघा जोमी । इसी शीर्षक पर इस फ़िल्म का नाम रखा जाता है। 1951 में आई फ़िल्म 'हमलोग' में बलराज साहनी के अभिनय से बिमल दा इतने मुत्तासिर थे कि वे शंभू के किरदार के लिए बलराज जी का चुनाव करते हैं।  कलकत्ता में एक साथ परिणीता और दो बीघा ज़मीन की शूटिंग शुरू होती है । दोनों फ़िल्में जनवरी 1953 में एक हफ्ते के अंतराल पर रिलीज होती है।  दोनों फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कामयाब होती है। लेकिन दो बीघा ज़मीन की यात्रा बॉक्स ऑफिस से परे फ्रांस के कान फिल्म फेस्टिवल के इलस्ट्रीयस प्रिक्स इंटरनेशनल पुरस्कार जीतने में सफल होती है। इटली के न्यू वेव सिनेमा के तर्ज पर भारत में 'दो बीघा ज़मीन' से नव यथार्थवाद फ़िल्मों की शुरुआत होती है। सोवियत संघ में आवारा हूँ गाने के बाद जो दूसरा हिन्दी गाना लोकप्रिय होता है वो है- अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा....मौसम बीता जाए। राजकपूर दो बीघा ज़मीन देखने के बाद ज़िन्दगी भर पछताते रहे कि यह फ़िल्म मैंने क्यों नहीं बनाई। बिमल रॉय को एहसास हो जाता है कि मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री में यहाँ की फॉर्मूला फिल्में नहीं बल्कि बंगाल की ज़मीन, साहित्य और भारतीय संस्कृति के सहारे ही हम यहाँ सिनेमा गढ़ सकते हैं। 

उसके बाद बिमल रॉय प्रोडक्शन की एक से बढ़कर एक फिल्में आनी शुरू होती है  बिराज बहू, देवदास, मधुमति, परख, सुजाता, बन्दिनी। फिल्मफेयर का पहला अवॉर्ड 21 मार्च 1954 को मुम्बई के मेट्रो सिनेमा हॉल में आयोजित होता है । जिसमें बिमल रॉय को दो बीघा ज़मीन के लिए बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड मिलता है। अवॉर्ड के बाद महालक्ष्मी के वेलिंगडन स्पोर्ट्स क्लब में डिनर आयोजित किया जाता है। लेकिन बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड जीतनेवाले बिमल दा को क्लब के अंदर घुसने नहीं दिया जाता क्योंकि वह धोती पहने होते हैं। सिर्फ सूट बूट वाले ही क्लब के अंदर दाखिल हो सकते हैं। बिमल दा से कहा जाता है कि धोती बदलके कोर्ट पैंट पहनकर आप आ जाएँ।  लेकिन बिमल दा  ऐसा करने से इंकार कर देते हैं। वह खामोशी से अपने घर बांद्रा लौट जाते हैं। वह अगले दो साल तक लगातार बेस्ट डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड जीतकर इस अपमान का बदला लेते हैं। बिमल दा एक खामोश निर्देशक थे। उनके होंठ नहीं बल्कि उनकी आँखें बोलती थी। सुबह 9.30 बजे वह अंधेरी कुर्ला रोड पर स्थित अपने दफ़्तर मोहन स्टूडियो पहुँच जाते थे। शाम 8 बजे वापिस घर आते थे। खाली वक़्त में किताब और रेडियो उनका साथी होता था। कोई अगर उन्हें अपने घर पर डिनर के लिए बुलाता था तो वह परेशान हो जाता था। क्योंकि बिमल दा वहाँ भी  खामोश रहते थे। कुछ पूछने पर सिर्फ़ यैस और नो में उत्तर देते थे। स्टूडियो के जिस फ्लोर पर लाइटिंग और सेटिंग हो रही होती, उस कमरे में बिमल दा दाखिल होते सबसे पहले कमरे की सेटिंग और लाइटिंग देखते थे। उनके कैमरामैन कमल बोस उनको फ्रेम दिखाने के लिए बुलाते तो बिमल दा बिना फ्रेम देखे दूसरी जगह कैमरा रखने को कहते। दूसरी जगह कैमरा रखने के बाद जब कमल बोस फ्रेम देखते तो हैरान रह जाते कि क्या शानदार फ्रेम बना है। मैंने पहले यहाँ कैमरा क्यों नहीं रखा! बिमल रॉय की फिल्मों में अभिनेता या अभिनेत्रियों का क्लोज अप शॉट बहुत जानदार होता है। बांद्रा में बिमल रॉय के पड़ोस में रहनेवाली मधुबाला कई दफे उनके घर आकर आग्रह करती कि दादा आप मुझे अपनी किसी फिल्म में ले लीजिए। आपकी फिल्म के क्लोज अप में अभिनेत्रियां बेहद खूबसूरत दिखती है।बिमल दा संगीत के रसिक थे। गाने फिल्माने की उनकी कल्पना शक्ति अदभुत थी। उनके गाने कहानी के हिस्से होते थे। फ़िल्म मधुमति में एक के बाद एक तीन गाने उन्होंने रखे हैं। एक गाना बैजयंतीमाला पर 'घड़ी घड़ी मेरा दिल धड़के' उसके बाद दूसरा गाना दिलीप कुमार पर 'दिल तड़प तड़प के कह रहा है' और तीसरा गाना बैजयंतीमाला पर 'दैय्या रे दैय्या चढ़ गयो पापी बिछुआ'। कहानी में रचे बसे इन गानों के जादू और उनका फिल्मांकन आपको एक पल के लिए भी बोर नहीं करता। उनमें कहानी चुनने की अदभुत प्रतिभा थी।  वह कहानी पढ़ने के बाद उसके सारे आयाम पर चिंतन करते थे फिर उस कथा को अपनी दृष्टि से पेश करते थे। उसी तरह अपने फिल्मों के किरदार के लिए अभिनेता और अभिनेत्रियों के चुनाव पे भी कोई समझौता नहीं करते थे। फ़िल्म देवदास में पारो की भूमिका के लिए मीना कुमारी उनकी पहली पसंद थी लेकिन कमाल अमरोही ने मीना कुमारी का डेट देने से मना कर दिया। उसके बाद सुचित्रा सेन को लिया गया। चंद्रमुखी के रोल के लिए बिमल दा ने नरगिस, सुरैया और बीना राय से सम्पर्क किया लेकिन तीनों पारो का किरदार करना चाहती थी चंद्रमुखी का नहीं। आख़िर में बैजयंती माला को चंद्रमुखी के लिए चुना गया। फ़िल्म बन्दिनी उनकी आख़िरी हिन्दी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट सुनाने जब बिमल दा नूतन के घर पहुंचे और स्क्रिप्ट सुनने के बाद नूतन ने कहा कि दादा कहानी बहुत अच्छी है लेकिन मैं फ़िल्म नहीं कर पाऊँगी । वजह पूछने पर मालूम हुआ कि नूतन के पेट में एक महीने का बच्चा (मोहनीश) था।  बिमल दा ने कहा कि अगर तुम यह फ़िल्म नहीं करोगी फिर बन्दिनी अब कभी नहीं बनेगी। लेकिन नूतन के पति रजनीश बहल को स्क्रिप्ट इतनी पसंद आई कि उन्होंने नूतन को बन्दिनी करने के लिए मना लिया। बन्दिनी देखने के बाद ऐसा लगता है कि किसी कवि ह्रदय निर्देशक ने कैमरा से कविता लिखी है। बिमल दा में एक कवि की दृष्टि थी।  अपने सिनेमा में मानवीय भावनाओं और प्रेम को जिस तरह से फिल्माते हैं इससे साबित होता है कि वे एक खामोश रोमांटिक व्यक्ति थे। लेकिन वह शारीरिक रोमांस को ज़्यादा तवज्जो नहीं देते थे। उनका मानना था कि मानव संघर्ष की एक दिलचस्प कहानी में हर कोई शामिल हो सकता है।बन्दिनी में कल्याणी (नूतन) उस महिला रोगी की हत्या कर देती है जो उसका प्रेमी विकास की पत्नी है। कल्याणी हर कीमत पर अपने प्रेम का कैदी बने रहना चाहती है। उसके पास जवान और हैंडसम डॉक्टर (धर्मेंद्र)  के साथ ज़िन्दगी बिताने का मौका है लेकिन वह अपने खोए हुए प्रेम की तलाश में है।  बन्दिनी का आख़िरी दृश्य जिसका फिल्मांकन झारखंड के साहिबगंज गंगाघाट पर हुआ था। जहाँ नूतन ट्रेन का इंतज़ार कर रही है और अशोक कुमार अपने स्टीमर का। बैकग्राउंड में ओह रे मांझी गीत चल रहा है। साउण्ड रिकार्डिस्ट डी बिलिमोरिया द्वारा इस्तेमाल स्टीमर के ध्वनि से बिमल दा ने नूतन के मनोभाव, बेचैनी और तड़प को बेहतरीन ढंग से चित्रित किया है। जब गाने की यह लाइन आती है ओह रे मांझी, मैं बंदिनी पिया की, मैं संगिनी हूं साजन की । नूतन ट्रेन से स्टीमर की तरफ भागती है । 

वार्डन – कल्याणी ! कहाँ जा रही है ?

कल्याणी – वहीं जहां मुझे जाना चाहिए । 

कल्याणी एक सफल डॉक्टर का साथ छोड़कर अपने पुराने और छूत की बीमारी से ग्रसित प्रेमी विकास (अशोक कुमार) के पास लौट जाती है । विमल दा की कल्याणी इस जगह पे सच्चे प्रेम के सर्वोच्च शिखर को छू लेती है। बिमल रॉय भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री में बंगाल की खुशबू, मानवीय भावनाओं के चितेरा, हिंदुस्तानी राग और लोक संगीत के रसिक और एक बेमिसाल किस्सागो थे। उन्हें जन्मदिन पर पर शत शत नमन!