संजय लीला भंसाली को किसने मारा थप्पड़ ?
28 Jan 2017
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ब्यूरो रिपोर्ट / in24 न्यूज़
राजस्थान के जयपुर शहर में फिल्म ''पद्मावती'' के सेट पर फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली के साथ राजपूत करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने जमकर मारपीट की। चंद हुड़दंगियों ने मिलकर संजय लीला भंसाली के साथ न सिर्फ धक्कामुक्की की बल्कि उनको थप्पड़ भी मारा। इस घटना के बाद समूचा बॉलीवुड इसकी कड़ी निंदा कर रहा है। मुठ्ठी भर कार्यकर्ताओं ने उत्पात मचाया लेकिन मौके पर मौजूद पुलिस उन्हें नहीं रोक पायी। हालांकि पुलिस ने हिंसा करने वाले कई दंगाइयों को गिरफ्तार कर लिया है लेकिन सवाल वही कि समय रहते यदि कथित दंगाइयों को पुलिस ने रोक लिया होता तो शायद यह घटना नहीं होती। कथित राजपूत संगठन को इस बात को लेकर नाराजगी है कि संजय लीला भंसाली अपनी फिल्म पद्मावती में अलाउद्दीन खिलजी और रानी पद्मावती के बीच लवमेकिंग सीन का फिल्मांकन क्यों कर रहे हैं ?
अब लोगों में ये भी उत्सुकता है कि आखिर राजपूत करणी सेना कौन है और यह किन राजपूतों की पैरवी करता है ? चर्चा इस बात को लेकर भी है कि इस तरह के संगठन की जमीनी हकीकत यही है कि ये संगठन इसी तरह से फिल्मों आदि के रिलीज या शूटिंग आदि के मौकों पर किसी न किसी मसले पर अपना विरोध दर्शाता है। और मीडिया के सामने ही नजर आते हैं। जमीन पर इसका कोई असर अब तक नहीं दिखा।
लोगों में इस बात की भी चर्चा है कि इस तरह के छोटे-मोटे संगठन अक्सर प्रसिद्धि पाने के लिए इस तरह के हथकंडो का इस्तेमाल करते हैं। अखबार और न्यूज़ चैनल भी इन्हें बढ़-चढ़कर दिखाता है यदि ऐसे लोगों को मीडिया तवज्जों न दे तो इनका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। एक मिनट के लिए मान भी लिया जाए कि पद्मावती काल्पनिक चरित्र हैं और इतिहास में इस बात के तथ्य मौजूद नहीं है। खिलजी एक आक्रमणकारी था और स्थानीय रानी के साथ फिल्म में उसके लवमेकिंग सीन को फिल्माना ये आखिर कैसी कल्पना है ?
राजस्थान के लोकगीतों से लेकर लोकमानस में रानी पद्मावती का एक स्थान है। मेवाड़ इलाके में रानी पद्मावती को लेकर एक खास समुदाय के लोग खुद को आइडेंटिफाई करते हैं। पौराणिक आख्यानों और लोक में व्याप्त किसी चरित्र को गलत तरीके से पेश करने को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ना उचित नहीं होगा। संजय लीला भंसाली ने जब राम-लीला फिल्म बनाई थी तो उस फिल्म का न तो राम से कोई लेना देना था और न ही रामलीला से। यह नाम इस लिए रखा गया था ताकि फिल्म के नाम को लेकर विवाद हो और फिल्म के लिए माइलेज हासिल किया जा सके। इसी तरह से अगर देखें तो संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म देवदास में भी प्रचलित इतिहास से छेड़छाड़ किया था।
शरतचंद्र की मूल कहानी में पारो और चंद्रमुखी के बीच मुलाकात ही नहीं हुई थी लेकिन भंसाली ने अपनी फिल्म में न केवल दोनों की मुलाकात करवा दी बल्कि दोनों के बीच एक गाना भी फिल्मा दिया और वो गाना भी था ''डोला रे डोला रे !'' अब यह तो माना नहीं जा सकता है कि संजय लीला भंसाली को यह बात पता नहीं होगा कि पारो और चंद्रमुखी के बीच मुलाकात नहीं हुई थी। जब आप जानबूझकर ऐतिहासिक तथ्यों या मिथकों या आख्यानों के साथ छेड़छाड़ करेंगे और मंशा विवाद पैदा करने की होगी तो फिर जयपुर जैसी घटनाओं की संभावना लगातार बनी रहेंगी। कोई भी सिरफिरा इस तरह की वारदात को अंजाम दे सकता है। दरअसल संजय लीला भंसाली लगभग हर फिल्म में ऐतिहासिकता को अपने हिसाब से इस्तेमाल करते चलते हैं।
यह चीज बाजीराव मस्तानी में बाजीराव और मस्तानी के बीच के काल्पनिक प्रेम को देखकर भी मिलता है। ऐतिहासिक चरित्रों के बीच रोमांस का तड़का बगैर किसी आधार के विवाद को जन्म देती है। फिल्म बाजीराव मस्तानी के वक्त भी इसको लेकर छोटा-मोटा विरोध हुआ था। इस तरह से अगर हम देखें तो आशुतोष गोवारिकर ने फिल्म मोहेजोदाड़ो बनाई, इस फिल्म का सिंधु घाटी सभ्यता के तथ्यों से कोई लेना देना नहीं है। इसमें आर्यों को सभ्यता का रक्षक और अनार्यों को लुटेरा जैसा चित्रित किया गया है। अब तक कोई इतिहासकार इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया है। काल्पनिकता के आधार पर इतिहास की नई व्याख्या बहुधा विवादित होती ही है। विरोध करना हर किसी का लोकतांत्रिक हक है लेकिन उसमें हिंसक होना या कानून को अपने हाथ में लेना सर्वथा अनुचित है।
भारतीय फिल्म सेंसर बोर्ड की पूर्व सदस्य और फिल्म निर्माता वीना अग्रवाल ने भी इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए कहा कि ऐसे मामलों में राज्य सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए। विवाद खड़ा कर अपनी तिजोरी भरने की मंशा बेहद खतरनाक होती है। खतरा तब और बढ़ जाता है जब इसको कला के नाम पर या कलाकार की अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ा जाता है। कलाकार की कल्पना जब जानबूझकर लोगों की भावनाओं को भड़काने लगे तो उसको रोकने के लिए संविधान में व्यवस्था है, हिंसक विरोध करनेवालों को इस रास्ते पर चलकर विरोध करना चाहिए। किसी को मारपीट कर अपनी बात रखने का कोई अधिकार नहीं है।